सामान्यतः यह समझा जाता है कि मनुष्य जीवन की चार मूलभूत आवश्यकताएं हैं, यथा – भोजन, जल, वस्त्र एवं घर, किन्तु यदि विचार किया जाए कि जीवित रहने के लिए इनमे से क्या सबसे आवश्यक हैं, तो उत्तर होगा भोजन व् जल । संभवतः आहार के बिना भी कुछ समय तक जीवित रहा जा सकता हैं , ऐसे कई योगियों का वर्णन प्राप्य हैं जो बिना भोजन व जल के कई वर्षो तक जीवित थे।
तब पुनः प्रश्न उठता है कि जीवित रहने के लिए सबसे आवश्यक क्या है – चिंतन करने पर हम पाएंगे कि एक श्वास ही है, जो यदि चौथाई घडी के लिए भी न आये तो मृत्यु अवश्यम्भावी है। श्वास चूंकि ईश्वर कृपा से स्वतः चलती रहती है , भोजन व जल प्राप्त करने की तरह हमें इसे प्राप्त करने हेतु प्रयत्न नहीं करना पड़ता, अतः हमने श्वास पर विचार करना ही छोड़ दिया ।
जिस प्रकार भोजन व जल जीवन की महत्वपूर्ण आवश्यकताएं होने पर भी हम उन्हें इतना महत्त्व नहीं देते, जितना उन वस्तओं को , जिनके बिना भी जीवन संभव है – जैसे – धन, वाहन, संबंध, वस्त्र, इत्यादि। ठीक उसी प्रकार श्वास को भी उतनी प्राथमिकता नहीं दी जाती, जितनी कि भोजन व जल को।
वर्तमान महामारी में निश्चित ही हमारा ध्यान एकबारगी इस ओर गया है, किंतु अभी भी हम इसके महत्व को न ही पूर्णतः समझ सके और न ही स्वीकार कर सके। आधुनिक विज्ञान तथा हमारे धार्मिक ग्रन्थ , दोनों ही भोजन व जल की शुद्धता, परिमाण एवं इन्हे ग्रहण करने के अनुशासन पर बल देते हैं, हमारे दैहिक व् मानसिक स्वास्थ्य पर इनका सीधा प्रभाव भी प्रमाणित है , किन्तु जिस प्रकार भोजन व जल में शुद्धता होना आवश्यक है, जिस प्रकार इन दोनो के अनुचित व अशुद्ध सेवन से न केवल हम अस्वस्थ हो सकते हैं, अपितु जीवनहानी भी हो सकती है, उसी प्रकार क्या हमने कभी विचार किया कि श्वास, जो कि जीवन का सबसे महत्वपूर्ण आधार है , इसका भी अवश्य ही कोई विज्ञान होगा, इसकी भी शुद्धता आवश्यक होगी, इसमें भी अवश्य कोई अनुशासन होगा।
जो शास्त्र हमें आहार की शुद्धता व अनुसाशन समझाते हैं, वे ही श्वांस सेवन की भी शुद्धता, अनुशासन एवं सटीक विधि का भी उल्लेख करते हैं, किन्तु आश्चर्य है कि हमने श्वास को स्वतः होने वाली प्रक्रिया मान कर उस ओर कभी ध्यान ही नहीं दिया। तिसपर भी, श्वास चूंकि सूक्ष्म व् अदृश्य है, अतः यह निश्चित ही हमारे जीवन तथा हमारे शरीर व् उसके क्रियाकलापों पर सूक्ष्म, अदृश्य किन्तु गहन प्रभाव डालती है, किन्तु हम सदैव स्थूल में उलझे होने के कारण सूक्ष्म प्रभावों का चिंतन ही नही कर पाते, उन्हें समझ नहीं पाते, तत्पश्चात भी उनका प्रभाव तो हमारे जीवन पर पड़ता ही है और हम उन प्रभावों का कारण कुछ और मान कर उलझ जाते हैं एक कभी न ख़त्म होने वाले भ्रम चक्र में।
उदाहरणार्थ, अत्यधिक क्रोध आने को हम IE disorder / hypertension मान कर औषधीय उपचार करते हैं, किन्तु क्रोध वास्तविकता में मात्र रक्तचाप व् ह्रदय गति का बढ़ना ही तो है, हम प्रत्यक्ष अनुभव कर सकते हैं की अत्यधिक आवेश में हमारे अंदर एक और सूक्ष्म परिवर्तन होता है और वह है ‘साँसों की गति का तीव्र हो जाना’ अतः स्वांसो की गति को बदल कर, नियंत्रित कर तत्काल उस आवेश के भाव को बदला जा सकता है – इसी कारण कई मनोचिकित्सक इस अवस्था में गहरी साँसे लेने अथवा उल्टी गिनती गिनने के साथ सांस लेने की सलाह देते हैं।
(https://www.mentalhelp.net/anger/management/relaxation-techniques/)
ठीक इसी प्रकार दमा के रोग का भी स्वर (श्वांस) चिकित्सा द्वारा सम्पूर्ण निदान संभव है। हाँ, यह अवश्य है कि इसके लिए आवश्यकता होगी एक ऐसे मार्गदर्शक की, जो श्वांस व् उसके रहस्यों का सम्पूर्ण ज्ञाता हो।
यह समझने के पश्चात कि श्वांसो का जीवन और उसकी प्रक्रियाओं से संबंध अटूट है, यह जानना आवश्यक है कि हम श्वांस लेते कैसे हैं, आमतौर पर यही समझा जाता है की हम Diaphragm अथवा lungs (फेफड़े) से श्वांस लेते हैं, किंतु हमारे पूज्य ऋषियों ने अनुसन्धान द्वारा हजारो वर्षों पूर्व ही यह निष्कर्ष प्रतिपादित किया था कि श्वांसो का संपादन वास्तविकता में हमारे मस्तक के मध्य से होता है, और इसी सत्य को आज का आधुनिक विज्ञान भी प्रमाणित कर रहा है (https://med.libretexts.org/Bookshelves/Anatomy_and_Physiology/Book%3A_Anatomy)। यह और बात है कि ऋषियों ने आत्मस्वरूप द्वारा ही शरीर की अन्य सभी क्रियाओं का ही सञ्चालन होना बताया है, किन्तु विज्ञान अभी अनुसन्धान कि उन गहराइयों तक नहीं पहुँच सका है।
अवश्य! इन मनीषियों ने श्वास लेने का सही तरीका, स्वांस में होने वाले ध्वनियों, उसके फलस्वरूप होने वाले स्पंदनो और उनका मानव जीवन पर गहन शोध किया और उसी का सार समाहित है अजपा योग में ।
योगचूड़ामणि उपनिषद का कथन है –
षट्शतानि दिवारात्रौ सहस्राण्येकं विशांति।
एतत् संख्यान्तितं मंत्रं जीवो जपति सर्वदा।।
अजपा नाम गायत्री योगिनां मोक्षदा सदा
अस्य संकल्पमात्रेण सर्वपापेः प्रमुच्यते।।
अर्थात, मनुष्य एक दिन में लगभग २१,६०० बार श्वास लेता है । आधुनिक चिकित्सा विज्ञान भी मनुष्य का श्वसन दर प्रति मिनट १२ – १८ होने की पुष्टि करता है (https://www.verywellhealth.com/what-is-a-normal-respiratory-rate-2248932) , यदि औसत श्वसन दर १५ प्रति मिनट मान ली जाए तो २४ घंटो में १४४० मिनट की गणनानुसार प्रतिदिन की औसत श्वास दर २१६०० ही बैठती है।
इसमें से भी यदि माना जाये कि १२ घंटे का दिन और १२ घंटे कि रात्रि होती है तो एक सामान्य मनुष्य केवल दिन में अर्थात १२ घंटे अर्थात १०,८०० (२१६०० / २) बार ही सचेत होकर श्वांस लेता है, बाकी १२ घंटे तो वह निंद्रा या अन्य कार्यो में अचेतन रूप से ही श्वांस लेता रहता है। किन्तु यदि कोई व्यक्ति इस विज्ञान (योग) में निपुण हो जाये तो वह अपनी प्रत्येक श्वांस को चेतन व अचेतन दोनों ही अवस्थाओं में उचित तरीके से ले सकता है, अपनी प्रत्येक श्वांस को ही योग बना सकता है, संभवतः इसीलिए उपरोक्त सूत्र में ऋषियों ने दिवारात्रौ शब्द का प्रयोग किया है, अर्थात जो योगी हो जाता है, वह इस कला में निपुण हो, इसे दिन रात अर्थात २४ घंटे कर सकता है, इसी कला का नाम है अजपा अर्थात वह विद्या जिसमे मन्त्र को मुख द्वारा बोलने की आवश्यकता नहीं रहती, अपनी श्वासो को ही मन्त्र बनाया जा सकता है।
जीवन काल से श्वांसो का सम्बन्ध हम विभिन्न प्राणियों की औसत श्वसन दर और उनके औसत जीवनकाल से समझ सकते हैं , एक मनुष्य प्रतिमिनट १२ – १८ श्वांस लेकर औसतन ८० – १०० वर्षो तक जीवित रहता है, वही एक कुत्ते की औसत श्वसन दर २५ – ४० होने से वह १५ – २० वर्षो तक ही जीवित रह पाता है , तो एक कछुआ प्रतिमिनट ३ – ४ सांस लेने से लगभग ३०० – ४०० वर्षो तक जीवित रहता है। (https://www.consciousbreathing.com/articles/breathe-less-live-longer/) संभवतः इसी कारण इस विधा में पारंगत योगी, अपनी इच्छानुसार कितने भी समय तक निरोगी व् जीवित रह सकते थे।
यही रहस्य है की पूज्य ऋषियों ने सदैव इस बात पर बल दिया की मनुष्य अपनी एक श्वांस भी प्रभु चिंतन – अर्थात अजपा – अर्थात श्वांस के अनुसाशन के बिना व्यर्थ न जाने दे , यहाँ तक कि उन्होंने ऐसे संकेत भी बनाये जिस से उस काल के मनुष्य को सदैव इसका स्मरण बना रहे – इसका एक अत्यंत लघु उदहारण है माला में १०८ मनके होना , प्रत्येक मनके पर १०० श्वासों के हिसाब से सचेतन अवस्था में १०,८०० श्वांसो को इंगित किया गया, वेदो में उपांशु – अर्थात मौन – अर्थात अजपा जप का फल भी सामान्य से सौ गुना बताया गया है, उस दृष्टि से भी एक मनके पर सौ गुना फल के अनुसार संख्या १०,८०० प्राप्त होती है।
किन्तु मध्य काल में जब मानव इस विद्या व संस्मरण को ही भूलने लगा तब भी विभिन्न संतो ने हमें यह स्मृति दिलाने का प्रयत्न किया । कबीर साहब ने – कर का मनका डार के, मन का मनका फेर तथा स्वांस उस्वाँस नाम जपो , व्यर्थ स्वांस मत खो में जहाँ उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से इस ओर इंगित किया वहीँ – स्वांस कि कर सुमरिनी और कर अजपा का जाप, परम तत्व ह्रदय धरो तो जानो आपो आप – कहकर वे प्रत्यक्ष ही अजपा कि महानता का वर्णन करते हैं।
अजपा श्वसन की प्रक्रिया को शब्दों में समझाया तो जा सकता है, परंतु इसका गहन विज्ञान समझने हेतु इसके अभ्यास से होने वाले अद्भुत लाभ हेतु आपको इसे स्वयं करके देखना होगा | अजपा योग संस्थान में हम आपको आमंत्रित करते हैं इसी अनुसंधान हेतु न कि किसी कहे हुए वक्तव्य को मान लेने हेतु ।
अजपा का विज्ञान, श्वास लेने की प्रक्रिया व स्पंदन पर आधारित है – चूँकि प्रत्येक प्राणी श्वास लेता हैं ओर सूक्ष्म व स्थूल रूप में स्पंदित होता हैं, अतः यह विज्ञान जाति, धर्म, रंग, स्वभाव, देश इत्यादि से परे मनुष्य मात्र के लिये हैं । अजपा किसी मनुष्य द्वारा बनाई गयी प्रक्रिया नहीं है, अपितु यह सृष्टि के प्रारम्भ से ही विद्यमान है जिस प्रकार धरती सदैव ही गोल थी, किंतु वैज्ञानिको ने अनुसंधान कर यह जाना।
उसी प्रकार हमारे पूज्य ब्रह्मऋषियों ने जब उस ध्वनि पर अनुसंधान किया जिससे वे उत्पन्न हुए थे तो उन्हें अजपा के गूढ रहस्यों का उद्घाटन हुआ और उन्होंने वैज्ञानिको की भांति ही मनुष्य की स्वाँस प्रक्रिया व प्रकृति के स्पंदनों का गहनतम अन्वेषण किया । उन्होंने पाया कि श्वास लेने व छोड़ने की प्रक्रिया में विभिन्न, किंतु मंद ध्वनियाँ भी उत्पन्न होती है, जो गहन ध्यान और शांत वातावरण में सुनी जा सकती है, यही ध्वनियां व श्वास लेने की प्रक्रिया जीव को विभिन्न तरीक़ों से स्पंदित करती हैं ओर इसी के आधार पर वह जीव विभिन्न आचरण करता है ।
श्वास लेने की प्रक्रिया दो भागों में विभाजित है, जैसे: प्रश्वसन (inhalation) एवं उच्छवसन (exhalation), इसी प्रकार श्वास की प्रक्रिया के दो माध्यम हैं – नासिका द्वारा व मुख द्वारा ।
जब हम नाक द्वारा श्वास भीतर लेते हैं तो ‘उम‘ (UM) की ध्वनि होती है। जब नासिका द्वारा ही श्वास बाहर छोड़ते हैं तब ‘हुम’ (HUM) की ध्वनि होती है ।
इसी प्रकार जब हम मुख द्वारा श्वास लेते हैं तो ‘अ’ (A) ध्वनि और श्वास छोड़ते समय ‘हा’ (HA) ध्वनि होती है।
During inhalation (प्रश्वसन) | During Exhalation (उच्छवसन) | |
नासिका द्वारा (Through Nose) |
उम – UM | हुम (Hum) |
मुख द्वारा (Through Mouth) |
अ – (A) | हा (HA) |
यदि हम थोड़ा स्थिर होकर ध्यान दे तो पाएँगे की
– नासिका द्वारा साँस बाहर छोड़ते समय H (ह) नामक ध्वनि अतिरिक्त रूप से बाहर आ रही है, क्यूँकि भीतर तो हमने केवल UM (उम) लिया था, जिसमें से उच्छवसन के समय um तो वापस आया ही किंतु वह अपने साथ अतिरिक्त H को लाकर hum हो गया
– उसी प्रकार मुख द्वारा श्वास बाहर छोड़ते समय भी ‘ह’ (H) की ध्वनि अतिरिक्त रूप से बाहर आ रही है, क्यूँकि भीतर तो हमने केवल अ (A) लिया था। उच्छवसन के समय अ(A) तो वापस आया ही, किंतु अपने साथ अतिरिक्त ‘ह’ (H) को लाकर हा (HA) हो गया ।
अतः यह निश्चित है कि इन चार वर्णों / ध्वनियों में से (ह/h) में कुछ तो विशिष्ट है जो यह अतिरिक्त रूप से खर्च हो रहा है । जैसे ऊष्मा (heat) कहने को तो सिर्फ़ heat है और उसका स्वभाव है गरम करना, परंतु इस ऊष्मा के अनेक जटिल रूप भी हैं। यही ऊष्मा सूक्ष्म व सौम्य रूप में ‘X’ किरण (x-ray) बन जाती है, और हमें बिना जलाए शरीर के आर पार हो जाती है ।
उसी प्रकार श्वास भी केवल श्वास न होकर एक अति रहस्यमय वायु है – इसीलिए हमारे ऋषियों ने इसके कई रूप बताएँ हैं जैसे – उदान वायु, अपान वायु एवं सबसे महत्वपूर्ण ‘प्राण वायु’ इसी रहस्य को जानने के लिया ब्रह्मऋषियों ने श्वास के चार वर्णो की खोज करने के बाद विशिष्ट वर्ण ‘ह’ पर अनुसंधान कर इसका रहस्य जानने की कोशिश की।
उन्होंने पाया कि जब भी कोई प्राणी अधिक ऊर्जा का उपयोग करता है, मेहनत का कार्य करता है तब इस ह/h वर्ण या ध्वनि की तीव्रता बढ जाती है और यह ह/h ध्वनि स्पष्ट सुनाई देती है। ऋषियों ने मृत्यु के सन्निकट प्रणीयो पर भी शोध किया है और पाया कि मृत्यु के समय श्वास की ध्वनि में भी इस वर्ण की प्रधानता है अ-हा, अ-ह, अ-हा…. जैसी कुछ ध्वनि मृत्यु के समय उच्छवास में होती हैं, जब इस ह ध्वनि का अंतिम कतरा शरीर से निकल जाता हैं – मृत्यु हो जाती है।
अतः ऋषियों ने इस ‘ह’ ध्वनि के ह्रास को ही जीवनी शक्ति का ह्रास कहा है। इस ध्वनि का ज्ञान न होने के कारण हम आम बोलचाल की भाषा में अत्यधिक मेहनत करने के बाद या मृत्यु पर कहते हैं – प्राण निकल गये अथवा प्राण खर्च हो गये।
जिस मात्रा में यह H (ह) व्यय होता है उसी अनुसार शारीरिक व्याधियाँ अथवा मानसिक दुर्बलताएँ उत्पन्न होती हैं। इसके विपरीत जब हम शांत होते हैं और कोई सुमधुर संगीत अत्यंत गहनता से सुन रहे होते हैं, दिमाग़ी उथल-पुथल से दूर होते हैं एकाग्रचित होकर किसी कार्य को कर रहे होतें हैं, तो हम पाएँगे की हमारी श्वासों की गति अत्यंत कोमल हो जाती है धीमी हो जाती है और उछ्वसन (exhalation) भी बहुत कम होता हैं। इस समय कम मात्रा में ह अथवा प्राण खर्च होता हैं और हम अच्छा महसूस करते हैं।
परंतु इस पर हमारा नियंत्रण नहीं है। हमारी सोच, अवस्था, कार्य के बदलते ही यह प्राणिक शक्ति तीव्र गति से खर्च होती हैं और हम पुनः परेशानियों में घिर जाते हैं, तनावग्रस्त हो जाते हैं। इसी अनुसंधान के निष्कर्ष से पूज्य ऋषियों ने श्वास लेने की प्रक्रिया को आकर्षण (attraction) व श्वास छोड़ने की प्रक्रिया को विकर्षण (repulsion) कहा । यह आकर्षण विकर्षण की प्रक्रिया प्रत्येक प्राणी, जड़-चेतन, चर-अचर, यहाँ तक की अणु व परमाणु में भी में प्रकट एवं सक्षम रूप से चलती रहती हैं।
ऋषियों ने यह भी जाना कि यदि कोई ऐसा प्राकृतिक माध्यम उपलब्ध हो जिससे h(ह) का ह्रास कम किया जा सके, तो मनुष्य अधिकाधिक आकर्षण में रह सकता है। व्याधियों तथा मानसिक तनावों से छुटकारा पा सकता है, अपनी चरम शक्तियों तथा क्षमताओ तक पहुँच सकता है।
अतः ऋषियों ने अनुसंधान कर एक ऐसी विधि का अन्वेषण किया जिससे ना केवल h(ह) का ह्रास अथवा विकर्षण कम किया जा सकता हैं अपितु अकर्षणात्मक ध्वनि के योग से आकर्षण को बढ़ाया जा सकता है। इसी विधि का नाम है अजपा योग, जिसमे अजपा के प्रशिक्षु को सर्वप्रथम नासिका द्वारा प्रश्वसन (inhalation ) व मुख द्वारा उछ्वसन (exhalation ) सिखाया जाता है, जो कि अत्यंत सरल होने से, वह कुछ घंटो में ही इसका अभ्यस्त हो जाता है , मुख द्वारा सांस बाहर जाते समय उसमे एक सरल कौशल द्वारा विशिष्ट व मंद ध्वनि का योग कर दिया जाता है, जिस से अतिरिक्त रूप से खर्च होने वाला ह (h) स्वाभाविक रूप से कम होते होते दीर्घ अभ्यास से समाप्त हो जाता है।
अजपा योग के निरंतर व दीर्घकालिक अभ्यास से विकर्षण कम होते होते आकर्षण उन्नत होता हैं। श्रद्धा, निष्ठा, निष्पक्ष भाव से गहन अभ्यास के बाद विकर्षण रहित भी हुआ जा सकता हैं। एसी स्थिति में प्रकृति के रहस्य उद्द्घटित होने लगते हैं और अनेको अप्रत्याशित लाभ होने के बाद मनुष्य स्वरूप ज्ञान व ब्रह्मज्ञान पा सकता हैं उस परमतत्व से एकाकार हो सकता हैं, जहां से उसकी उत्पत्ति हुईं।
यदि किसी का लक्ष्य ब्रह्मज्ञान न भी हो तब भी अजपा का अभ्यास उसे उसके कार्यक्षेत्र व दैनिक जीवन में ऊर्जा, सार्थकता उल्लास और विजय दे सकता हैं। मानसिक शांति, ऊर्जा, याददाश्त का बढ़ना, निर्णय लेने में स्पष्टता, संकल्प शक्ति का बढ़ना, जीवनी शक्ति का तेज, शारीरिक व्याधियों से रक्षा इत्यादि अनेकों लाभ अजपा के साधकों को कुछ ही समय के अभ्यास से प्राप्त होते हैं।
सर्वोत्तम तथा महत्वूर्ण है कि यह विधि पूर्णतया प्राकृतिक तथा आपके संयम व नियंत्रण में है। चूँकि यह वैज्ञानिक एवं गहन अन्वेषण पर आधारित है अतः इसका अभ्यास, इसके मूलरूप में व सिद्ध विधि से करना आवश्यक हैं, यह विधि इसकी महत्ता व विशिष्टता के कारण गुरुगम्य है।
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